लघु उत्तरीय प्रश्न :
प्रश्न 1. सुकुमार विनोदों के लिए नाखून को उपयोग में लाना मनुष्य ने कैसे शुरू किया ? लेखक ने इस सम्बन्ध में क्या बताया है ? [2012C]
उत्तर- लेखक का कहना है कि कुछ छः हजार वर्ष पूर्व मनुष्य ने नाखून को सुकुमार विनोदों के लिए उपयोग में लाना शुरू किया था। भारतवासी नाखूनों को खूब सँवारते थे । उनके काटने की कला काफी मनोरंजक थीं। बिलासी नागरिकों के नाखून त्रिकोण, वर्तुलाकार, चन्द्राकार, दंतुल आदि विविध आकृतियों के रखे जाते थे। लोग मोम एवं आलता से इन्हें लाल एवं चिकना बनाते थे। ये सारी बातें वात्स्यायन के कामसूत्र से पता चलती है।
प्रश्न2. लेखक द्वारा नाखूनों को अस्त्र के रूप में देखना कहाँ तक तर्क संगत है ? [2013A, 2016AII]
उत्तर- पहले के युग में ज्ञान-विज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। उस समय मनुष्य वनमानुष अर्थात् आदिमानव था तथा जंगल में रहता था। उन्हें अपने प्रतिद्वन्द्वियों से जूझने के लिए नाखूनों का उपयोग करना पड़ता था। आज भी अगर मानव को जब लड़ना पड़े तो उसका पहला अस्त्र नाखून ही होगा। इन प्रकार हम देखते हैं कि नाखून का उपयोग एक अस्त्र की तरह ही होता है। इसलिए लेखक द्वारा नाखूनों को अस्त्र के रूप में देखना पूर्णतः तर्क संगत है।
प्रश्न 3. मनुष्य बार-बार नाखून क्यों काटता है ? [2015AIL, 2017C, 2020AII, 2024AII]
उत्तर- मनुष्य से बार-बार काटकर अपनी पशुता को मिटाना चाहता है। वह चाहता है कि उसके पास बर्बर युग का कोई अवरोध न रह पाये। इसी उद्देश्य से मनुष्य बार-बार नाखूनों को काटता है।
प्रश्न 4. बढ़ते नाखूनों द्वारा प्रकृति मनुष्य को क्या याद दिलाती है ? [2015C, 2024AI]
उत्तर- बढ़ते नाखूनों द्वारा प्रकृति मनुष्य को यह याद दिलाती है कि तुम भीतर वाले स्वाभाविक अस्त्र से अब भी वंचित नहीं किए गए हो। तुम्हारे नाखून भुलाए नहीं जा सकते । तुम वही प्राचीनतम नख एवं दंत वाले पशु हो । तुम नाखूनों को चाहे जितना काटो वे बढ़ते ही रहेंगे । अतः प्रकृति मनुष्य को आदिमानव रूप की याद दिलाती है ।
प्रश्न 5. लेखक क्यों पूछता है कि मनुष्य किस ओर बढ़ रहा है पशुता की ओर या मनुष्यता की ओर ?
उत्तर- लेखक का मानना है कि नाखून बढ़ना मनुष्य की पशुता की निशानी है और नाखून काटना मनुष्यता की। किन्तु, उसे आश्चर्य है कि जब मनुष्यता की रक्षा के लिए मनुष्य नाखून काटता है तब इतना मारक अस्त्र का निर्माण वह क्यों करता है ? अस्त्र-शस्त्र भी तो नाखून की तरह पशुता की ही निशानी है। इसलिए, लेखक का प्रश्न उचित है। इसलिए, लेखक अस्त्रों के बढ़ते प्रयोग को देकर यह प्रश्न पूछता है।
प्रश्न 6. लेखक के अनुसार, सफलता और चरितार्थता क्या है 2018AI
उत्तर-लेखक के अनुसार, सफलता और चरितार्थता में अंतर है। सफलता मनुष्यों का बड़े आडंबर के साथ मारणास्त्रों के संचयन से, बाह्य उपकरणों के बाहुल्य से उस वस्तु को पाना है जिसकी उसे चाहत है। जबकि प्रेमपूर्वक व्यवहार, मैत्रीपूर्ण व्यवहार, त्याग की भावना, अपने को सबके मंगल के लिए निःशेषध भाव से समर्पित करना मनुष्य की चरितार्थता है।
प्रश्न 7. नाखून बढ़ने का प्रश्न लेखक के सामने कैसे उपस्थित हुआ ?
उत्तर- नाखून क्यों बढ़ते हैं, यह प्रश्न लेखक के सामने उनकी छोटी पुत्री द्वारा एक दिन उपस्थिति किया गया। इस प्रकार, इस प्रश्न ने लेखक को इसका विचार करने के लिए आन्दोलित किया।
प्रश्न 8. नख बढ़ाना और उन्हें काटना कैसे मनुष्य की सहजात वृत्तियाँ हैं ? इनका क्या अभिप्राय है
उत्तर- नख बढ़ाना और उन्हें काटना मनुष्य की अभ्यास जन्य सहज वृत्तियाँ हैं। शरीर ने अपने भीतर एक ऐसा सहज गुण पैदा कर लिया है जो अनायास हीकाम करता है । असल में सहजात वृत्तियाँ अनजान स्मृतियों को कहते हैं। मनुष्य के भीतर नख बढ़ने की जो सहजात वृत्ति है, वह उसके पशुत्व का प्रमाण है और उन्हें काटने की जो प्रवृत्ति है, वह उसकी मनुष्यता की निशानी है। यद्यपि पशुत्व के चिह्न उसके भीतर रह गये हैं। लेकिन, वह पशुत्व को छोड़ चुका है क्योंकि पशु बनकर वह आगे नहीं बढ़ सकता । अतः लेखक के कहने का अभिप्राय यह है कि जब तक मनुष्य अस्त्र बढ़ाने की ओर उन्मुख है, उसमें पशुता की निशानी शेष है क्योंकि अस्त्र-शस्त्र बढ़ाने की प्रवृत्ति मनुष्यता की विरोधिनी है ।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न :
प्रश्न 1. लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी ने किस प्रसंग में कहा है कि बंदरिया मनुष्य का आदर्श नहीं बन सकती ? लेखक का अभिप्राय स्पष्ट करें। [2022AII]
उत्तर-लेखक का कहना है कि अपने आप पर अपने आप के द्वारा लगाया हुआ बंधन हमारी संस्कृति की बड़ी विशेषता है। मैं ऐसा नहीं मानता यानी यह लेखक का विचार है कि जो कुछ हमारा पुराना है, जो कुछ हमारा विशेष है, हमारी पहचान है, धरोहर है, उससे हम चिपटे रहें। पुराने का मोह सदैव हितकारी नहीं होता। मरे हुए बच्चे को गोद में लेकर जिस प्रकार बंदरिया घुमती-फिरती है-वह कभी भी हमारा आदर्श नहीं बन सकती। लेकिन, व्यामोह से मुक्त रहते हुए नयी खोजों के साथ नशे की हालत में भी नहीं रहना है कि हम अपना सर्वस्व ही खो दे। यहाँ पुरातनता की खामियों से सबक लेते हुए नवीनता को ग्रहण करने का आग्रह है। लेकिन, लेखक सचेत करता है कि मोह और नशे की हालत में नहीं। दूरदर्शिता और संयत, सतर्क रहकर ही हम प्राचीन और नवीन के बीच संगम सेतु का निर्माण कर सकते हैं और इस सृष्टि की, अपनी अस्मिता की रक्षा कर सकते हैं।